
पिता को लेकर उनकी यह कविता झकझोर कर रख देने वाली है। कुछ दिनों से मै भी उधेड़बुन में था कि पिता के अरमानों की व्याख्या बेटे कैसे करते हैं। हम सब जो बेटे हैं, वे क्या कर रहे हैं। मैं खुद इन बातों में खो जाता हूं। खासकर पिता शब्द के करोड़ों चरित्रों को डिस्क्राइब करते हुए। यह कविता उसी श्रृखंला का हिस्सा मालूम होती है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर एक के अंदर एक पिता जीवित होता है जो छटपटाता भी रहता है।
अभी पढ़िए शाहनवाज की कविता-
बाप ने जोड़े थे
कई ईंटे
और बनाया था एक मकान
ये उसके ख्वाबों का घर था
जहाँ थे उसके बच्चे
जो उसकी आँखों के सामने
घर के आँगन में खेलते
धीरे धीरे हो रहे थे जवान
बाप मर चुका है
और बच्चे हो चुके है जवान
बाप के ख्वाबों का घर
अब उसके जवान बच्चे
कर रहे हैं नीलाम
क्यूंकि उनकी बीवियों को
यह घर लगता है छोटा
माँ खामोश है
और देख रही है
अपने पति के ख्वाबों का बलात्कार
यह जानते हुए भी
कि उस बड़े मकान में
मिलेगा उसे सिर्फ एक कोना
मैं बेटी हूं, पर चुप हूं, इस पढ़ने के बाद। शाहनवाज के शब्दों में खो गई हूं।
ReplyDeleteआनंदी
मैं बेटी हूं, पर चुप हूं, इस पढ़ने के बाद। शाहनवाज के शब्दों में खो गई हूं।
ReplyDeleteआनंदी
बहुत ही खुब
ReplyDeleteएक सच्चाई, हर काल की
ReplyDeleteसंवेदनाओं को झकझोरने वाले भाव की रचना। वाह।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
bahut hi acha hai.
ReplyDeleteशाहनवाज ने जिस तरह यह कविता लिखी है उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है
ReplyDeleteअरे कब से अपने यार को छुपा कर रखे थे दोस्त। सचमुट झकझोर कर रख देन वाली कविता है। इस बात को इस अंदाज में मैंने कभी नहीं पढ़ा था।
ReplyDeleteशहनवाज को शुक्रिया।
अमनदीप अटवाल
लुधियाना
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ReplyDeleteजय हो शाहनवाज..शानदार अभिव्यक्ति। गिरीन्द्र तुम्हें भी यहां इसे लाने के लिए।
ReplyDeleteदेव
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ReplyDeleteजैसी आपने अपनी भूमिका में कहा..वैसा ही कविता में महसूस हुआ। हकीकत तो यही है..
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