
ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्ताँ
देखते कि मुल्क़ सारा ये टशन में थ्रिल में है
आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये
अपनी आज़ादी तो भइया लौंडिया के तिल में है
आज के जलसों में बिस्मिल एक गूँगा गा रहा
और बहरों का वो रेला नाचता महफ़िल में है
हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्ढी भी सिलती इंगलिसों की मिल में है
गिरीन्द्र भाई,
ReplyDeleteआपकी कलम में वाकई असर है. अपन तो २४ साल बैंक में जॉब किया है और इलेक्ट्रौनिक्स इंजिनियर भी हूँ सो, इलेक्ट्रानिक उत्पादों की डिजाईनिंग भी करता हूँ इसलिए आपकी तरह अच्छी कविता तो लिख नहीं सकता लेकिन पढने में मन खूब रमता है.
बेहद खूबसूरत और सीधे दिलो-दिमाग पर असर करती है आपकी ये कविता. आज के हिन्दी हिन्दुस्तान में देहरादून के मशहूर शायर "ओमप्रकाश खरबंदा 'अम्बर' " ने भी लिखा है की 'गालों और बालों' से बाहर निकलें शायर. लेखनी में मानवीय, सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकार न हों तो वो वैसी ही है जैसे बिना चाशनी के जलेबी.
ओमप्रकाश खरबंदा की शायरी से दो पंक्तियाँ आपके लिए
'आ फिर ताल्लुकात को बेहतर सा मोड़ दें !
कुछ मैं भी जिद को छोड़ दूं कुछ तू बदल के देख !!'
और दूसरी ,
'मजबूरियों की गोद में दम तोड़ता है इश्क !
अब भी कोई बना ले तो बिगड़ी नहीं है बात !!'
अपनी कलम की धार को मंद न होने दें.
आपको बहुत-बहुत साधुवाद !
श्रीकृष्ण वर्मा
देहरादून (उत्तराखंड)
सरजी य मेरी नहीं पीयूष मिश्रा की कलम है। फिल्म गुलाल से।
ReplyDeleteniik blog achhi. pahil ber dekhal, muda bahut tasalli bhel
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