Wednesday, January 17, 2007

कोसी का इलाका......रेणु की कथा भूमि

फणीश्वर नाथ रेणु और उनकी कथाभूमी
पुणिया शहर से २२ कि.मी. की दुरी पर स्थित है चम्पानगर. व्यस्थित बाज़ार वाला इलाका, नजदीक के गांवों का एकमात्र बडा बाजार. सड्कें तंदरुस्त है और बिजली भी यहाँ पहुंच चुकी है. मेरा पहुंचना यहाँ यूं ही नही हुआ. दरअसल मैं कोसी के कुछ पुराने बाजारों देखना चाहता था...सो यहां आना हुआ. साथ हीं पता चला कि इस इलाके में एक एनजीओ महिलाओ के विकास के लिए जोर शोर से काम कर रहा है. मैं मन ही मन खुश हुआ कि लगे हाथ दो काम हो जाऐगें....
यह इलाका काफी पुराना है..और समृद्ध भी. बिहार के एक बडे ज़मीन्दार परिवार "बनैली राज" का यहाँ अधिपत्य हुआ करता था. इसी परिवार की ५२ साल की एक महिला यहाँ "निखार" के नाम से एक एनजीओ चला रही है. इस महिला ने लडकियों को सबल बनाने का बीडा उठाया हुआ है. की लडकियां जुट के कालीन बनाती है और वह दिल्ली, कोलकाता और मुंबई के बाज़ारों में खुब बिकती है. एनजीओ परिक्रमा के बाद मैं अपने मुख्य उदेश्य बाजार देख्नने निकल पडा. यहाँ के बाजार आपको मेले की याद ताज़ा कर देगी. रेणु ने "मैला आँचल" में इस बाजार(चम्पानगर मेला) का ज़िक्र किया है.यहां का बाजार आज आधुनिकता के चादर में खुद को लपेट रहा है.. सिनेमा हाल जैसी नयी दुनिया इस इलाके में आ गयी है. बाजार में आपको हर कुछ मिल जाएगा. यहां कपडों का बडा बाजार लगता है. खाद व्यवसायी हरी साह् (उम्र ६२ साल् बताते हैं" २० साल पहले भी यह बाज़ार पुरे इलाके का मुख्य बाज़ार था..आज तो यह पुरनिया से थोडा ही कम है..." इस बाजार से जब आगे बढा तो एक बोर्ड पर मेरी नज़र ठहर गयी.. लिखा था...."राजेन्द्र मेहता,खाद के अधिकृत विक्रेता.चम्पानगर..आवास-प्राणपट्टी."प्राणपट्टी पढते ही मैं चौंक पडा ! अरे ये तो रेणु के "परती परिकथा" का प्राणपट्टी है... जितू का इलाका.... उपन्यास का संपूर्ण पात्र मेरे जहन मे शोर मचाने लगा. अब मै प्राणपट्टी की ओर जाने का बना लिया.. (इस बात से अनजान कि क्या रेणु की प्राणपट्टी यही है..!) बाजार से वहां पहुचने में मुझे आधे घंटे लगे. तब तक दोपहर ढल चुकी थी. यह एक सघन आबादी वाला टोला है, बांसों की सुन्दर कारीगीरी यहाँ देखने को मिली. शहर के "बाउन्ड्ररीवाल" के बद्ले यहाँ बांस को फाडकर कैपंस को घेरा जाता है... इसका अंदाज बेहद बिंदास होता है.. किन्तु मन की छटपटाहट कुछ और जानने को थी. मुझे प्राणपट्टी को जानना था...इसके लिए मेरी नज़र ऐसे व्यक्ति को खोज रही थी जो छ्;-सात दशक के घट्नाक्र्म को बयां कर सके.. युवक जो राह चलते मिल रहे थे वे मुझे एक अजीब नजर से देख रहे थे मानो "ये कौन आ गया?" कि मेरी नज़र एक व्यक्ति पर ठहर गयी.. चेहरे पे झुर्री..सफेद बाल, दांत गायब्,, इन्हें देखकर मेरे जहन में इस बात की पुष्टी हो गयी कि हो सकता है कि जनाब कुछ बताएं.. मैं उनके पास पहुंचा, बात के जाल को आगे बढाने की अस्त्र चलाया, दर असल कोसी के इलाके में बात को बढाने के लिए काफी मसक्त करनी पड्ती है. वहां लोग अपनी ही बात ज्याद करते है, गांव की बातें, बदलते समय की दास्तां...और हां गुंडागर्दी तो बात की मुख्य आर्कषण होती है. लेकिन मेरी छटपटाहट तो कुछ और जानने को थी. सो ,मुझसे रहा न गया और मैं पूछ बैठा- आपने फणिश्वर नाथ रेणु को सुना है..? हलदर मेहता नामक ये वृद्ध कुछ देर आंखे मूंदे रहे , फिर बोले- काहे न पहचानेगें हो..अरे बहुत बडे लिखने वाले थे.. खुब लिखे, अपने इलाके बारे में तो इतना लिखनकिन हैं कि और बचले क्या है लिखने के लिए. .चम्पानगर साइड खूब आते थे. राजा साहब के ड्योढी पर आना होता था. सब टोला घुमते थे. खुब बतियाते थे लोगन से. उनकी यही खुबी थी. बात बनाने में तो रेणु माहिर थे. कहानी के लोग तो ऐसे ही गांव के टोला से उ ले जाते थे. मैं चुपचाप मेहता जी की बातें सुनता जा रह था. रंग बिरंगी बातों का सिलसिला जारी था. मैं ने कुछ देर थम कर पूछा- "परती परिकथा में जो प्राणपुर पट्टी का ज़्रिक है क्या यह वही प्राणपुर है? " मेहता साब सोचते हुए बोले- बबुआ जी रेणु इस मामले में कुछ अलग थे, कहां कौन सा इलाका छाप देते ,हम कुछ बता नही पायेगें. मेरे सवाल धडा का धडा ही रह गया.. शाम हो चुकी थी और मुझे फिर पुर्णिया जाना था, सो मेहता जी को सलाम करता वहां से निकल पडा. लेकिन खुद-बुदाहट दिल मे जारी था. खैर ! देर रात पुर्णिया पहुंचा. सुबह शहर के कुछ बुद्धिजीवियों का जमघट हुआ तो कल के अनुभव बताने लगा, बातो ही बातो मे पता चला की कटिहार जिला मे भी एक प्राणपुर है, और वहां भी रेणु अक्सर जाया करते थे. वैसे रेणु ने खुद लिखा है कि उनका कथादेश तो पुरा कोसी का इलाका ही है, सो यह सोचकर की शायद चम्पानगर वाला ही प्राणपुर हो.... मेरे जितु की परती भूमि या आज के कोसी की जुबान में जितु का इलाका..
इन शहरी बुद्धिजिवीयो के मुख से कई बाते ऐसी भे निकली जिसे सुनकर मुझे अच्छा न लगा. एक महाशय ने बताया कि "रेणु कुछ ज्यादा ही लिख डाले है पुर्णिया के बारे में, अरे जिसके पास ज़मीन है .ज्यादा है तो बुराई क्या है.दर असल ये वही लोग थे जिनके पास विशाल परती जमीन है और अपने शहर के आउट हाउस से गांव की बागडौर संभाल रहे है.

मैं अबाक था, मेरी बुद्धि को मानो लकवा मार दिया हो.
शायद कोसी की संस्कृति बदली नही है...मैला आंचल से लेकर परती परीकथा की कोसी अभी भी जमीन के मामले मे वैसी ही है जैसी तब थी.

8 comments:

  1. Ek achi report ke liye badhai!

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  2. Anonymous7:54 PM

    एक व्यवस्थित वृतांत वर्णन जिसमें तुमने
    पिछड़े हुए समाज का भी धीरे से चित्रण कर डाला...

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  3. Anonymous10:56 PM

    reporter sab, ek achchi report, jiski shuruat huyi aj se aur kal bhi aya beech me par fir vahi aj aur aj bhi pichada....

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  4. Anonymous1:55 AM

    सुंदर आलेख, बधाई.

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  5. Anonymous3:04 AM

    अच्छा लगा पढ़कर ..

    धन्यवाद एवं बधाई !!

    रीतेश गुप्ता

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  6. Anonymous11:56 AM

    रेणू जी बारे में जानने की इच्छा मुझमें भी थी, आप का लेख बहुत अच्छा लगा.

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  7. Anonymous5:12 PM

    रेणू जी के बारे मे पढकर अच्छा लगा ! धन्यवाद

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  8. रेणू जी की कहानियॉं बचपन से ही पसन्‍द है। उनकी कहानियों में मिट्टी की सौंधी-सौंधी से खुशबू होती है। इतना कुछ लिखने के बाद भी उनका गॉंव 'औराही हिंगना' कुछ वर्षों पहले वैसा ही था, प्रगति से कोसों दूर। पोस्‍ट अच्‍छा लगा। रेणू जी के जीवन से संबंधित कोई और जानकारी हो तो जरूर ई-मेल करें।

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