मैने पढा था,
परखना मत परखने से कोई अपना नही रहता.
उस समय केवल पढा था,
अब समझता हुं.
दर-दर भटक रहा हुं,
तो समझ रहा हुं.
नौकरी छोडे अब महिने हुए..
शायद केवल लिखने आने से कुछ नही होता,
अब तो ज़ुगार और पैरवी से सब कुछ हाथ में आता है..
सोचा था लिख पाता हुं,
शायद बात बन पडेगी.
लेकिन सोचने से क्या होता है?
दफ्तरी वाद्-विवादो को
मेरी बुद्दी कभी समझ नही पायी.
अब मै उसे समझ पा रहा हुं,
जब एक दफतर से दुसरे दफतर का चक्कर लगाता हुं.
लेकिन ए-खुदा
यदि तुम हो तो सुनो,
लिखने का जुनुन अभी भी है,
और अंत तक यह जुनुन जिंदा रहेगा,
कोई हिला नही सकता मुझे,
सुन रहे हो न !
मुझे विश्वास है,
कोई है इस महफिल्-ए-दुनिया में
जो मेरा सुनेगा..
जब तक पहले आफिस मे था
तो तमगा था
लोग सुनते थे,
पुछते थे
.घर पर बाबुजी भी पुछते थे,
खुश थे,
शायद पिता का पद होता ही है ऐसा,
नाक का सवाल होता है-एक बेटा.
वह चाहता है कि नाक की इज्जत बनी रहे बस
मां तो दिल से सोचती है न !
बेटा अच्छ आदमी बने बस.
लेकिन कैसे समझायें कि
खाने के लिए अन्न चाहिए,
रहने के लिए मकां और पहने के लिए मोटे कपडे,,,
तो लोग् इस शहर मे पुछते है..
लेकिन अब तो कोई पुछता भी नही..
मुझे खुद पर विश्वास है कि
इक दिन मेरा भी वक्त आयेगा,
मेरी बात सुनी जाएगी,
भले मै न बोलुं ,
मेरी बात सुनी जायेगी.....
वक्त ऐसा आयेगा...
शायद यह आपबीती है। यदि नहीं है तब भी बेरोजगार युवक की मन:स्थिति को बखूबी बयाँ करती है। लेकिन संवेदना के साथ कविता का तत्व भी कुछ जोड़िए इसमें। सपाट कथन को बीच-बीच से तोड़ देने को कविता नहीं कहते।
ReplyDeleteभले ही सपाट कथन हो या कविता हो, आपका लिखा दिल को छूता है।
ReplyDeleteभाई, लेकिन मैं तो आपको पूछता हूं... आपके बेहतर भविष्य की उम्मीदों के साथ हूं...
ReplyDeleteपहले शिल्पी महोदय...को..कविता मात्र
ReplyDeleteतुक्बंदियों का भावनात्मक वेग नहीं है..
कविता मात्र एक लय है जो मनोभावनाओं
से होकर गुजरती है...अत्यंत भावुक है भाई..
keep it up...it reveals a suppressed
sound of today's students.
बहुत सुंदर भाई ...वैसे भी हर इंसान कवि होता है
ReplyDelete...कविता सीखी नहीं जाती....वो तो दिन पर दिन लिखते-लिखते स्वयं निखरती है ।
बधाई !!
रीतेश गुप्ता
मनोभावों को बखूबी उकेरा है.
ReplyDeleteगिरीन्द्र जी ।
ReplyDeleteतपते रेगिस्तान में...
पानी झलक रहा था
मैं प्यासा जब पास गया
तो बस रेत नजर आयी...
बचपन में 'मृगमरीचिका'सुना था
और आज...
खुद आ फंसा हूं।
--- विजय
गिरीन्द्र जी ।
ReplyDeleteतपते रेगिस्तान में...
पानी झलक रहा था
मैं प्यासा जब पास गया
तो बस रेत नजर आयी...
बचपन में 'मृगमरीचिका'सुना था
और आज...
खुद आ फंसा हूं।
--- विजय
गिरीन्द्र जी ।
ReplyDeleteतपते रेगिस्तान में...
पानी झलक रहा था
मैं प्यासा जब पास गया
तो बस रेत नजर आयी...
बचपन में 'मृगमरीचिका'सुना था
और आज...
खुद आ फंसा हूं।
--- विजय